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‌रावण को दिन में जलाया जाता है, होलिका को रात में क्यों जलाया जाता है ?

मिथक और लाल सोच( कँवल भारती)



लाल सोच वाले बुद्धिजीवियों की समस्या यह है कि वे हर समस्या का हल लाल किताब में खोजते हैं। जब वहाँ हल नहीं मिलता है, तो समस्या को ही नकारने लगते हैं और बड़ी निर्लज्जता से कहने लगते हैं कि यह समस्या जातिवादी है। मिथकों के बारे में हमारे लाल मित्रों का यही कहना है कि मिथकों पर बात मत करो, इससे वर्गीय चेतना बाधित होती है। अब उन्हें कौन समझाए कि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ लाल किताबों में नहीं मिलेंगी।
‌होली पर मेरी पोस्ट से उपजी लाल मित्रों की हताशा और बौखलाहट दोनों ही फेसबुक पर मौजूद हैं। उनकी समस्या यह है कि वे यथार्थ को न देखना चाहते हैं और न समझना। सारी हिन्दू संस्कृति, जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुष्ठान, तीज-त्यौहार, व्रत उपवास सब मिथकों पर खड़े हैं। मिथक गिरे नहीं कि हिन्दू संस्कृति का सारा ढाँचा चरमरा कर धड़ाम हो जाएगा। इसलिए मिथकों को जिन्दा रखने के लिए सारे उपक्रम किए जाते हैं। ये मिथक अगर वर्गीय चेतना के होते, तो कोई समस्या नहीं थी। पर ये जातीय और नस्लीय चेतना के हैं। इन मिथकों में एक खास नस्ल और जाति समूहों को दुश्मन बनाया गया है, उनके प्रति घृणा प्रचारित की गई है और उन्हें बेहद क्रूरता और छल बल से मारकर और जलाकर उत्सव का रूप दिया गया है। ये ज़ालिम और शोषक प्रभुओं के आतंक के विजयोत्सव हैं।
‌ये तर्क सही है कि मिथक इतिहास नहीं हैं। पर इनका इतिहास से भी ज्यादा गहरा प्रभाव जनमानस में है। अगर ये इतिहास होते, तो ज्यादा समस्या नहीं थी, क्योंकि इतिहास के प्रभाव एकाध सदी तक रहते हैं, फिर धीरे धीरे विस्मृति के गर्भ में चले जाते हैं। कारण, इतिहास संस्कृति का रूप नहीं लेते हैं। पर मिथकों के प्रभाव इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं कि उन्होंने संस्कृति का रूप धारण कर लिया है। वे आस्था का प्रश्न बन गए हैं। अगर आस्था के डर से मिथकों पर बात नहीं होगी, तो कोई सांस्कृतिक परिवर्तन आप नहीं कर पाएंगे।
‌अफ़सोस है कि कुछ दलित साहित्यकार भी मिथकों के नाम से बिदकते हैं। कुछ साल पहले की बात है कि मैंने त्रेता के मिथकों की आलोचना पर अपनी एक किताब हेमलता महिसर को समर्पित की थी, यह सोचकर कि वह स्त्री चिंतक हैं, और स्त्री मिथकों पर मेरी आलोचना को पढ़ेंगी। पर उसके विमोचन में उन्होंने यह कहकर गुड़गोबर कर दिया कि 'मैं मिथकों को नहीं पढ़ती।' और उन्होंने उस किताब को सचमुच नहीं पढ़ा। मुझसे एक अपात्र को अपनी किताब  समर्पित करने में भयंकर ग़लती हुई थी।
‌लेकिन इन नादानों को नहीं मालूम कि मिथकों पर सबसे बढ़िया और गम्भीर काम दलित बहुजन लेखकों ने ही किया है। सच तो यह है कि दलित साहित्य का जन्म ही मिथकों की आलोचना से हुआ है। मिथकों पर जोतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर ने शानदार काम किया है, जिसने बहुजन जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फुले ने अवतारों के मिथकों की वैज्ञानिक गवेषणा की है।
‌मिथक इतिहास नहीं हैं, कहानियाँ हैं, इस बात से इनकार नहीं है, पर क्या कहानियों में सामाजिक यथार्थ नहीं होता है? मिथक भी तत्कालीन समाज के यथार्थ की कहानियाँ हैं। इस बात को भूलकर ही उनको समझने में भूल होती है।
‌अपनी होली पोस्ट पर वापिस आता हूँ और कुछ उन तथ्यों को लाल मित्रों के विचारार्थ यहाँ रखता हूँ, जिन्हें सब्जी की दुकान पर बातचीत में नहीं रखा जा सकता था। वे तथ्य ये है:--
‌होलिका में आग लगाने से पहले स्त्रियाँ लकड़ियों के ढेर पर जाकर पूजा करती हैं, परिक्रमा करती हैं। अगर होलिका राक्षस थी तो उसकी पूजा क्यों की जाती है? बसन्त के दिन से ही जब से होली रखी जाती है, औरतों के लिए वह चैराहा या स्थान पवित्र हो जाता है। जिस दिन होली जलती है, औरतें बारी बारी से आकर उसकी पूजा करती हैं।
‌रावण को दिन में जलाया जाता है, होलिका को रात में क्यों जलाया जाता है?
‌होलिका में आग लगाते समय होलिका मैया की जय का जयकारा लगता है? क्यों, वह तो राक्षस थी। माँ कैसे हो गई?
‌आग लगाते समय सभी मर्द इकट्ठा होते हैं, एक भी औरत मौजूद नहीं होती है। क्यों?(अब कहीं अपवाद हो तो पता नहीं, पर मैंने बचपन से मर्दों को ही देखा है)
‌होलिका में आग लगने के बाद औरतें अपने घर के आंगनों में बलगुरियाँ जलाती हैं, जो गोबर के फूलों की माला होती है। क्यों? कहीं यह अपनी देवी को पहनाने के लिए बनाईं गईं फूल मालाओं का प्रतीक तो नहीं है। शायद उनकी देवी को जबरन जलाने के लिए ले जाया गया और उन्हें फूल माला पहनाने नहीं दी गईं।
‌शायद होलिका जिन मूल्यों और अधिकारों के लिए लड़ रही थी, वही उसकी दर्दनाक मौत का कारण बना।
‌लाल मित्रों को जय भीम।

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